Wednesday, 10 August 2016

FOR YOUR EYES ONLY


आज सुबह metro किसी कारणवश देर से चल रही थी, ऊपर से office peak hours. हर coach में भीड़ बहुत थी, मैं ख़ुद बमुश्किल किसी तरह धक्का लगते खड़ा हो पाया । अब जनाब भीड़ इतनी थी कि हमारी body का जो part जिस position में था वो वही रह गया । मेरे आस पास लगभग सब मेरे क़द से बड़े ही थे । किसी  से पसीने की smell किसी से deo की ख़ुशबू । इस मिली जुली हालत में जब मैंने इधर उधर निगाह घुमाई तो दो लोगों के बीच थोड़ी सी jagah mein एक जोड़ी ख़ूबसूरत तरीक़े से तराशी हुई हल्की भूरि आँखें मुझे मेरी और ही तकती नज़र आयी । 
क्या कहु मैं कुछ अलग ही बात थी उनमें, कसक थी, गहरायी थी, उसकी रूह की सफ़ाई और उसकी सारी सोच मुझे उसमें ही नज़र आयी थी । क़यामत थी जैसे किसी अप्सरा को पर्दे कि पीछे खड़ा कर दिया हो और लोगों को बस आँखों का दीदार करने दिया जा रहा हो । 
मैं चाह कर भी अपनी निगाह हटा नहीं पा रहा था । मेरे manners मुझे कह रहे थे के नहीं यह ग़लत है पर हो नहीं पाया । और सही कहु तो मुझे इसका मलाल भी नहीं है । 

वो एक जोड़ी आँखें जो पहले मेरी तरफ़ शायद surprise तरीक़े से देख रही थी, धीरे -धीरे confidence से फिर फिर थोड़ा सख़्त होते हुए ग़ुस्से में तब्दील हो गयी । मैं महसूस कर सकता था कि जिनमें पहले थोड़ी नरमी थी अब उनमें ग़ुस्सा 
था । 
मैं बेहद सोच में पड़ गया क्या मैं इन आँखों को जानता हूँ, क्या मैं पहचानता हूँ ? पर नहीं कोई जवाब नहीं । मैं चाह कर भी देख नहीं पा रहा था उन आँखों के मालिक को। और इसी क़समकश में वो एक जोड़ी आखें KAROLBAGH उतर गयी और मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया।
तब से कही मन नहीं लग रहा । मैंने आज तक किसी का मन नहीं दुखाया और अगर किसी का दुखाया तो याद नहीं क्योंकि वो अनजाने में ही हुआ होगा । 
पर जनाब कुछ भी कहो बेहद ख़ूबसूरत आखें थी ।

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